१० सितंबर, १९५८

 

    ''आधुनिक कालमें जैसे भौतिक विज्ञानने अपने शोधकार्यको बढ़ाया और प्रकृतिकी गुप्त भौतिक शक्तियोंको मानव उपयोगके लिये मानव ज्ञानके द्वारा संचालित कर्मके लिये उन्मुक्त किया, वैसे ही गुह्यविद्या पीछे हट गयी और अंतमें इस आधारपर एक ओर रख दी गयी कि 'ज-तत्व' ही सच्चा पदार्थ है और 'मन' तथा 'प्राण' उसीकी विभागीय क्रियाएं है । इसी आधारपर, भौतिक 'ऊर्जा'को ही सब चीजोंकी चाबी मानकर भौतिक विज्ञान- ने हमारे मन और प्राणके सामान्य और असामान्य व्यापारों और क्रियाओंके भौतिक उपकरण और भौतिक प्रक्रियाके ज्ञान- द्वारा मन और प्राणकी प्रक्यिाओंपर नियंत्रण करनेकी कोशिश की है । आध्यात्मिकताको मानसिकताका ही एक रूप मानकर उसकी अवहेलना की गयी है । चलते-चलते यह कहा जा सकता है कि अगर यह प्रयास सफल हो गया तो यह मानव जातिके अस्तित्वके लिये खतरेसे खाली न होगा । आज भी तो मानव जाति कई वैज्ञानिक खोजोंका दुरुपयोग और भद्दा उपयोग कर रही है क्योंकि वह अभीतक इतनी वडी और खतरनाक शक्तियोंको संभाल सकनेके लिये मानसिक और नैतिक तौरपर

 

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तैयार नहीं है । विज्ञानके द्वारा किया गया वन और प्राणका यह नियंत्रण हमारी सत्ताके मूलमें रहनेवाली और उसे धारण करनेवाली गुप्त शक्तियोंके ज्ञानके बिना किया गया कृत्रिम नियंत्रण होगा । पश्चिममें गुह्यविद्याको बड़ी आसानीसे हटा- कर एक तरफ रखा जा सका क्योंकि वहांपर वह कभी प्रौढ़ न हो पायी थी, कभी पककर दार्शनिक या दृढ श्ववस्थित आधारको न पा सकी थी । उसने खुलकर अतिप्राकृतिकके रोमांचमें रस लिया या अपने मुख्य प्रयासको अतिसामान्य शक्तियों- का उपयोग करनेके लिये गुर और प्रभावशाली विधियां खोज निकालनेपर केन्द्रित करनेकी भूल की । वह भटककर काले दा सफेद जादूटोनेमें बदल गयी या गुह्य रहस्यवादकी ऐंद्रजालिक साज-सज्जा बन गयी और अंतमें एक सीमित और अल्पज्ञानकी अतिरंजना वनी । इन प्रवृत्तियों और मानस-आधारकी इस अस्थिरताने गुह्यविद्याकी रक्षा करना कठिन और  करना सरल बना दिया । बह एक ऐसा लक्ष्य बन गयी जिसपर आसानीसे प्रहार हो सकता है । मिलमें और पूर्वमें ज्ञानकी यह धारा ज्यादा बड़े और व्यापक प्रयासतक जा पहुंची । अब भी यह प्रौढ़ता तंत्रोंकी विलक्षण प्रणालीमें सुरक्षित देखी जा सकती है । यह केवल असाधारण -- अतिसामान्य -- का बहुमुखी विज्ञान न थी । इसने धर्मके सभी गुह्य तत्वोंकी .आधार दिया और आध्यात्मिक साधना और आत्मोपलब्धिकी एक महान् और शक्तिशाली पद्धतिका विकास किया । क्योंकि उच्चतम गुह्यविद्या बह है जो 'मन', 'प्राण' और 'आत्मा' की गुप्त गतिविधियों और क्रियात्मक अति- सामान्य संभावनाओंको खोज निकालती है और हमारी मान- सिक, प्राणिक और आध्यात्मिक सत्ताकी अधिक प्रभावशालिताके लिये उनका उपयोग उनकी अपनी शक्तिके साथ या किसी क्रियात्मक पद्धतिके द्वारा करती है ।

 

    प्रचलित विचारोंमें गुह्यविद्या जादू-टोना या तथाकथित अति- प्राकृतिककी क्रियापद्धतिके साथ संबंध रखती है । लेकिन यह उसका एक पक्ष ही है, यह कोरा अंधविश्वास नहीं है जैसा वे लोग यूं ही मान लेते हैं जिन्होंने गुप्त प्राकृतिक शक्तिके इस पक्षको गहराईसे नहीं देखा, बिलकुल नहीं देखा या इसकी संभावनाओंपर प्रयोग नहीं किया । सूत्र और उनका

 

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प्रयोग, सुप्त शक्तियोंका यंत्रीकरण जिस तरह भौतिक विज्ञानमें उपयोगी है उसी तरह मनः शक्ति और प्राण-शक्तिके गुह्य उप- योगमें आश्चर्यजनक रूपसे प्रभावकारी हो सकता है, लेकिन यह एक गौण विधि है और इसकी दिशा भी सीमित है । क्योंकि मन और प्राणकी शक्तियां अपनी क्रियामें नमनीय, सूक्ष्म और परिवर्तनशील होती है, उनमें 'जडतत्वकी कठोरता नहीं होती । उन्हें जाननेके लिये, उनकी कार्य-पद्धतिको समझने और उनका उपयोग करनेके लिये, एक सूक्ष्म और नमनीय संबोधि या अंतर्भासकी जरूरत होती है, यहांतक कि उनके स्थापित सूत्रोंको समझने और उनका उपयोग करनेके लिये भी सूक्ष्म और नमनशील अंतर्भासकी जरूरत पड़ती है ।. यंत्री- करण और कठोर सूत्रीकरणपर बहुत बल देनेसे हो सकता है कि ज्ञान बंजर हो जाय या एक दिये हुए आकारमें ही बंधकर रह जाय और व्यावहारिक रूपमें भूल और म्गंति बहुत बड़ जायं, अज्ञान-भरी रुचियाँ, दुरुपयोग और असफलता ही हाथ लगें । अब हम इस अंधविश्वाससे बाहर निकल रहे है कि 'जडू-पदार्थ' ही एकमात्र तत्व है, इसलिये प्राचीन गुह्य- विद्या और नवीन सूत्रोंका ओर तथा 'मन' के छिपे हुए सत्यों और शक्तियोंके वैज्ञानिक अनुसंधान और चैत्य, असामान्य और अतिसामान्य मनोवैज्ञानिक व्यापारोंके अध्ययनकी ओर लौटना संभव है, बल्कि कुछ अंशोंमें दिखायी पडू रहा है । लेकिन अगर इसे पूर्ण होना है तो अनुसंधानकी इस दिशाके सच्चे आधार, सच्चे लक्ष्य और निर्देशन, आवश्यक प्रतिबंधों, खोजको इस दिशाकी आवश्यक सावधानियोंको फिरसे खोजना होगा । उसका सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य होना चाहिये मनकी शक्ति, प्राण-शक्ति और छिपी हुई शक्तियों और आत्माकी ज्यादा बड़ी शक्तियोंको खोज । गुह्यविज्ञान तत्वतः अंतस्तलीयका, हमारे और विश्वप्रकृतिके अंतस्तलीयका विज्ञान है, साथ ही उस सबका जिसका अंतस्तलीयके साथ संबंध है, इसमें अवचेतन और अतिचेतन भी आ जाते है । यह आत्म-ज्ञान और विश्व-ज्ञानके लिये और उस ज्ञानकी सच्ची क्रियाशीलताके लिये इसके उप- योगका विज्ञान है ।''

 

 ('लाइफ १० ८७५-७७)

 

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     मधुर मां, सफेद जादू क्या होता है?

 

हम ''सफेद जादू'' उस जादूको कहते हैं जो लाभदायक होता है ओर ''अभि- चार'' या ''काला जादू'' उसे जो हानिकर होता है । पर ये तो केवल शब्द है, इनका कोई अर्थ नहीं होता ।

 

    जादू?..... यह एक ज्ञान है जिसे केवल भौतिक सूत्रोंतक ही सीमित कर दिया गया है । यह उन शब्दों या संख्याओं या फिर संख्याओं और शब्दोंके संयोजन जैसा है जिन्हें कोई ऐसा व्यक्ति जिसके पास कोई आंतरिक शक्ति न भी हो, केवल उच्चारित भर कर दे या लिख दे तो अपना काम जरूर करते हैं । गुह्यविद्यामें इनका वही स्थान है जो विज्ञान- मे रसायन-सूत्रोंका । तुम्हें पता ही है, विज्ञानमें, कुछ तत्वोंको मिलाने और उनसे नये तत्वोंको उत्पन्न करनेके लिये कुछ रासायनिक सूत्र होते है; यदि तुम्हारे पास कोई मानसिक शक्ति या प्राणिक शक्ति, यहांतक कि शारीरिक शक्ति भी न हो, यदि तुम केवल अपने उस सूत्र'का अक्षरशः: अनुसरण करो तो तुम्हें वांछित परिणाम मिल जाता है -- याद रखना ही काफी होता है । हा तो, ध्वनियों, अक्षरों, संख्यांक ओर शब्दोंके संय1एजनसे जिनमें अपने उचित गुणोंके कारण अमुक परिणाम प्रान्त करनेकी क्षमता होती है, गुह्यविद्यामें इसी तरहका प्रयास किया गया है । इस तरह, पहला जडूमति जो इस मार्गपर आता है वह यदि इसे सीख ले और जैसा बताया गया हों ठीक वैसे ही करे तो वह मनचाहा फल पा लेता है (या विश्वास करता है कि पा लेगा) । जब कि... उदाहरणके लिये, हम मित्रको जिसका गुह्यविद्यामें प्रयोग किया जाता है; जबतक कि मंत्र गुरुद्वारा न दिया गया हों और गुरु उस मित्रके साथ अपनी गुह्य या आध्यात्मिक शक्ति प्रदान न करे तबतक तुम चाहे हज़ारों बार उस मंत्रका जाप करो, कोई असर नही होगा ।

 

   कहनेका मतलब यह है कि सच्ची गुह्यविद्यामें इसका उपयोग करनेके लिये व्यक्तिमें गुण, योग्यता, आंतरिक देन होनी चाहिये और वही सुरक्षा- कवच है । ऐरा-गैरा नौसिखिया सच्ची गुह्यविद्याका उपयोग नही कर सकत। । ओर यह कोई जादू भी नही है, न सफेद जादू, न काला जादू और न ही सुनहला जादू, यह जादू है ही नही, यह आध्यात्मिक शक्ति है जो लंबी साधनाद्वारा ही प्राप्त की. जा सकती है; और अंतमें, केवल भाग- वत कृपासे ही तुम्हें मिलती है ।

 

   इसका मतलब है कि ज्यों ही मनुष्य 'सत्य' के निकट पहुंचता है वह नीमहकीमीसे, सारे पाखंडों और मिथ्यात्वसे त्राण पा जाता है । मेरे पास

 

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इसके बहुत-से और बहुत ही निर्णायक प्रमाण है । अतः जिसके पास सच्ची गुह्यविद्याकी शक्ति है उसके पास, साथ-हों-साथ, हम यं_ कह सकते है, इस आतरिक सत्यके बलपर, उस सत्यके बिंदु-भर प्रयोगद्वारा जादुओंको मिटा देनेकी शक्ति भी होती है, चाहे वे सफेद हों या काले हों या किसे। और रंगके । कर्हेय चीज ऐसन नही जो इस शक्तिका प्रतिरोध कर सकें । जादू करनेवालोंको यह बात अच्छी तरह मालूम होती है, क्योंकि सभी देशोंमें, खासकर भारतमें, वे सदा इस बातमें बहुत सावधानी. बरतते है कि अपने मंत्रोंका प्रयोग य।एगियों और संतोंके विरुद्ध न करें क्योंकि ३ जानते है कि थोडीकी यांत्रिक और बहुत छिछली शक्तिके साथ भेजे गये उनके ये मंत्र आध्यात्मिक जीवन बितानेवालेकी संरक्षिका सच्ची शक्तिके साथ वैसे ही टकरायेंगे जैसे दीचारके साथ गेंद टकराती है और स्वभावत: वहांसे उचटकर उनका मैत्र वापस उन्हींपर आकर गिरेगा ।

 

    योगी या संतको कुछ करनेकी. जरूरत नही. पड़ती., उसें अपने-आपको बचानेकी इच्छातक नहीं' करनी पड़ती : सब दुत्छ अपने-आप हों जाता है । वह चेत्तना और आतरिक शक्तिकी एक ऐंसी अवस्थामें होता है जो हर निम्नतर चीजसे स्वतः उसकी रक्षा करती है । स्वभावतया, दूसरोंको बचाने- के लिये भी वह अपनी शक्तिका स्वेच्छासे उपयोग कर सकता है । उसक्ए: वातावरणसे बुरी रचनाका इस तरह उचटना, अपने-आप उसकी रक्षा करता है, लेकिन यदि यह बुरी र-चना किसी ऐसेके विरुद्ध भेज) गयी है जो उसके सरक्षणमें है या जिसने उसकी सहायता मांगी है तथ्य- वह अपने वायुमंडलकी र्गातेसे, अपने प्रभामंडलसे उस व्यक्तिको घेर सकता है जो जादूभरे दुष्ट टोनोंके प्रति खुला हुआ है और उचटनेकी. प्रक्रिया उसी तरह होती है और काम करती है जिससे वह बुरी रचना बहुत स्वाभाविक ढगसे भेजनेवालेके ऊपर जा गिरे । लेकिन ऐंसी दशामे योगी या संत-महात्माके सचेतन संकल्पकी आवश्यकता होती है । जो कुछ हुआ हों उसकी सूचना उसे अवश्य दी जानी चाहिये और उसे हस्तक्षेप करनेका निर्णय करना चाहिये । सच्चे ज्ञान होर जादूमें यही अंतर है ।

ओर कुछ?.... बस, इतना ही?

 

   मां, क्या भौतिक विज्ञान उन्नति करते-करते अपने-आपको गुह्य- विद्याकी ओर खोल सकता है?

 

 यह (विज्ञान) इसे ''गुह्यविद्या'' नहीं कहता, बस इतनी बात है । यह केवल शब्दोंका खेल है.... । वे आजकल सनसनीखेज खोजें कर रहे है जो

 

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गुह्यविद्या जाननेवालेंको हज़ारों साल पहले मालूम थी । ये लंबा चक्कर लगाकर अब उसी चीजपर आ पहुंचे हुँ ।

 

    उदाहरणार्थ, चिकित्सा-शास्त्रमें, व्यावहारिक वितानमें वे नयी-से-नयी खोजोंके साथ, उन्हीं चीजोंतक, जिन्हें कुछ ऋषि बहुत, बहुत पहले जानते थे, भौचक्के होकर, बहुत रसके साथ पहुंच रहे हैं । और तब वे उन्हें तुम्हारे सामने नये चमत्कारोंकी तरह प्रस्तुत करते हैं - पर वास्तवमें, बे, उनके वे चमत्कार, होते कुछ पुराने हैं!

 

   अंततः वे बिना जाने गुह्य विद्याका अभ्यास कर रहे होंगे । क्योंकि, मौलिक रूपसे, ज्योंही कोई वस्तुओंके सत्यके पास पहुंचता है, चाहे वह ??? ही कम क्यों न हो, ओर जब कोई अपनी खोजमें सच्चा होता है, बाह्य रूपोंसे ही संतुष्ट नहीं हों जाता, सचमुच कुछ पाना चाहता है, गहरा पैठता है, बाह्य रूपोंको भेदक उनके पीछे जाता है, तभी वह वस्तुओंके सत्यकी ओर बढ़ना शुरू करता है । ओर जैसे-जैसे वह इसके समीप पहुंचता जाता है वह उसी ज्ञानको पुनः प्राप्त करता है जिसे वे लोग अपने अतर-अन्वेषणोंद्वारा बाहर लाये थे जिन्होंने भीतर पैठनेसे आरंभ किया था ।

 

    केवल पद्धति और पथ अलग-अलग होते है, पर खोजी हुई वस्तु एक ही होगी, क्योंकि खोजने योग्य वस्तुएं दो नही हैं, वह तो एक ही है । आवश्यक रूपसे यह वही होगी । सब कुछ इसपर निर्भर है कि तुम कौन-से पशुका अनुसरण करते हो । कुछ लोग तेजीसे बढ़ते है, कुछ धीरे-धीरे, कुछ सीधे जाते है; दूसरे (जैसा कि मैंने पहले कह।- है) लंबा चक्कर काट- कर पहुंचते है; और कितना अधिक श्रम! कितना परिश्रम किया है उन्होंने!.. फिर भी यह है अति आदरणीय ।

 

 ( मौन)

 

   अब वै पता लगा रहे है कि संज्ञाहर औषधियोंकी जगह ३ सम्मोहन- विद्यासे काम ले सकते हैं और उससे अनतगुना अच्छे परिणाम होंगे । ओर सम्मोहनविद्या -- कहनेके ढंगने इसे आधुनिक रूप दे दिया है -- गुह्यविद्याका ही एक रूप है; यह उस शक्तिका बहुत सीमित, बहुत छोटा- सा रूप हैं जो गुह्य शक्तिकी तुलनामें रति भर है, लेकिन, फिर मी, यह है गुह्यविद्याका ही एक रूप जिसे आधुनिक शब्दोंका बाना पहना दिया गया है ताकि वह आधुनिक बन जाये । ओर, मुझे पता नही कि तुम इन चीजोंसे अवगत हो या नही, किंतु एक खास दृष्टिकोणसे यह

 

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बहुत रोचक है : जैसे, सम्मोहनकी इस प्रक्रियाका प्रयोग एक ऐसे ब्यक्तिपर किया गया था जिसके घावपर चमड़ी लगानी थी । पूरा विवरण तो मुझे अब याद नही, लेकिन उसकी बांहको टांगके साथ पंद्रह दिनतक जोड़ रखना था... । यदि उस व्यक्तिको पलस्तर, पट्टी आदि कई तरहकी चीजों लगा- कर चलने-फिरनेसे रोक दिया जाता तो पंद्रह दिनके बाद वह अचल हा जाता - सब कुछ सख्त हो जाता और अपनी बांहको स्वतंत्र रूपसे हिलाने-डुलानेके लिये उसे हपतों इलाज कराना पड़ता । इस व्यक्तिका कुछ भी नही बांधा गया, स्थूल रूपसे कुछ भी निष्क्रिय नही बनाया गया -- न पलस्तर, न पट्टियां - कुछ भी नहीं - व्यक्तिको केवल सम्मोहित किया गया और उससे अपनी बांहको अमुक ढंगसे रखनेके लिये कहा गया । उसने किसी प्रयास, कठिनाई और अपने संकल्पके हस्तक्षेपकी जरूरतके बिना उसे पंद्रह दिन वैसे ही रखा : यह तो सम्मोहन करनेवालेका संकल्प हस्तक्षेप करता था । यह पूर्णतया सफल हुआ; बांह इच्छित मुद्रामें रही, और जब पंद्रह दिन पूरे हो गये और सम्मोहनके प्रभावको दूर कर दिया गया और व्यक्तिसे कहा गया : ''अब तुम हिल सकते हो,'' तो वह हिस्तने लगा । तो, यह प्रगति है ।

 

   वे (दोनों) जल्दी ही मिल जायेंगे, यह शब्दोंका खेल रहेगा और कुछ नहीं - और यदि कोई बहुत हठीला न हो तो वह शब्दोके मूल्यके बारेमें सहमत हों सकता है ।

 

  मधुर मां, कहते है कि सम्मोहनसे सम्मोहित व्यक्तिपर, बादमें, बुरा असर पड़ता है ।

 

    नही, नही । यदि कोई दूसरेपर अपनी इच्छा लादनेके लिये सम्मोहनका प्रयोग करता है तो स्पष्ट ही वह दूसरे व्यक्तिको बहुत क्षति पहुंचा सकता है, पर हम उस सम्मोहनकी बात कर रहे हैं जिसका उद्देश्य ''लोकोपकारी'' कहा जा सकता है और जो निश्चित हेतुओंकी लिये किया जाता है ।

 

    यदि करनेवालेकी नीयत बुरी न हो तो सब बुरे प्रभावोंसे बचा जा सकता है ।

 

     यदि तुम रसायन-सूत्रोंका बिना जाने प्रयोग करो तो तुम एक विस्फोट पैदा कर सकते हों (हंसी) और वह बहुत भयंकर होता है । उसी तरह, यदि तुम गुह्य मंत्रोंको आशापूर्वक प्रयोगमें लाओ -- या अहंपूर्वक जो कि अज्ञानसे भी बदतर है - तो तुम्हें भी हानिकर परिणाम मिल सकते है । परंतु इसका यह मतलब नहीं कि गुह्यविद्या बुरी है या सम्मोहनविद्या बुरी

 

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है या रसायन-विज्ञान बुरा है । तुम रसायन-विज्ञानपर इसलिये प्रतिबंध नहीं लगा देते क्योंकि कुछ लोग विस्फोट कर देते हैं! (हंसी)

 

     गुह्यविद्या सीखनेके लिये मनुष्यमें कुछ विशेष गुण होने चाहिये जब कि विज्ञान सीखनेके लिये... ।

 

लेकिन हर चीजके लिये विशेष गुण होने जरूरी हैं ।

 

      विज्ञानका ज्ञान साधारण आदमीकी पहुंचके भीतर है ।

 

सुनो, यदि तुम कलाकार नहीं हो तो तुम तूलिका, रंग, कैनवस लेकर वर्षों काम करते रहो, बेहिसाब पैसा बहाओ, श्रम करते रहो - तब भी वीभत्स चीजों ही चित्रित करोगे । यदि तुम संगीतज्ञ नहीं हो तो पियानो बजानेमें घंटों जूते रहो पर कभी कामकी चीज नही बजा सकोगे । विशिष्ट गुण तो सदैव आवश्यक होते हैं... । कसरतीके लिये भी; यदि तुम जन्म- जात कसरती नहीं हों तो तुम चाहे जितनी कोशिश कर लो केवल साधा- रण और औसत दर्जेका कुछ करनेमें ही सफल हो सकोगे । यह उससे अच्छा होगा जो बिलकुल ही चेष्टा नहीं करता, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि तुम अपने-आप ही सफल हों जाओगे । इसके अतिरिक्त, यदि हम एक कदम और आगे बढ़े, हर एकमें असंरन्त संभावनाएं होती है जिनका उसे भान नहीं होता और जो तभी विकसित होती है, जब, जो आवश्यक है वह किया जाय और वैसे ही किया जाय जैसे किया जाना चाहिये... । पर उन्नति दो प्रकारकी होती है, सिर्फ एक ही नहीं । एक प्रगति है अपनी संभावनाओंको, क्षमताओंको, दक्षताओं और गुणोंको अधिकाधिक पूर्ण बनाते जाना -- आम तौरसे शिक्षाद्वारा यही प्राप्त होता है, लेकिन यदि तुम महत्तर सत्यतक जाकर कुछ और जरा अधिक गहरे विकासके लिये चेष्टा करो तो तुम अपने पहलेके गुणोंमें कुछ और नये गुण जोड़ सकोगे जो मानों तुम्हारी सत्तामें सोये पड़े थे ।

 

      तुम अपनी संभावनाओंको बहुगुणित कर सकते हों, उन्हें फैला और बढ़ा सकते हों; तुम सहसा कोई चीज ऊपर ले आ सकते हों जिसके बारेमें तुमने सोचा भी नहीं था कि तुम्हारे पास है । मैं पहले कई बार इसकी व्याख्या कर चुकी हू । जब तुम अपने भीतर अपना चैत्य पुरुष पा लेते हो तो उसी समय काफी अप्रत्याशित रूपसे बे चीजों विकसित होती हैं जो तुम पहले बिलकुल नहीं कर सकते थे, ऐसी चीजों प्रकाशमें आती

हैं जिनके बारेमें तुम सोचतेतक न थे कि वे तुम्हारे स्वभावमें हैं । इस- के भी मेरे पास अनगिनत उदाहरण हैं । इसका एक उदाहरण मैंने तुम्हें, दिया था, पर एक बार फिर दोहरा रही हू ताकि अच्छी तरह समझा संक् ।

 

     मैं एक युवा लड़कीको जानती थी जो बहुत साधारण वातावरणमें पैदा हुई थी, उसे बहुत शिक्षा भी नहीं मिली थी, और जो टूटी-फूटी-सी फ्रेंच लिख लेती थी, उसने अपनी कल्पनाको भी नहीं साधा था और साहित्यिक रुचि तो थी ही नहीं : मानों उसमें वह संभावना तो थी ही नहीं । हां तो, तब उसे अपने चैत्य पुरुषके साथ संपर्ककी आंतरिक अनुभूति प्राप्त हुई और जबतक वह संपर्क जीवंत और प्रत्यक्ष रहा, उसने अपूर्व चीजों रिनखीं । जब वह उस अवस्थासे पुनः साधारण अवस्थामें आ गिरी तो उसे दो वाक्य मी ठीक तरहसे जोड़ने नहीं आते थे! अवस्थाओंको स्वयं देखा है ।

 

    प्रतिभा हर एकमें होती है - लेकिन व्यक्तिको पता नहिं होता !

 

 हमें इसे सामने ले आनेका तरीका ढ्ढा होगा. सो रहा है -- यह अपने-आपको प्रकाशित करनेसे मांगता । हमें इसके लिये द्वार खोल देने होंगे ।

 

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